Saturday, 17 December 2016

अद्वैत और विशिष्टाद्वैत

    अद्वैत के प्रतिपादक आचार्य शंकर के अनुसार अद्वैत का अर्थ है फ़ो नहीं परंतु एक भी नहीं। एक कहना उसे सीमा में रखना है और सीमा में रखना उसे सापेक्ष बना देना है। इसलिए आचार्य शंकर कहते है कि न तो एक न दो बल्कि एक मात्र ब्रह्म की सत्ता है। अर्थात एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति। इस प्रकार आचार्य शंकर के दर्शन में ब्रह्म के अलावा जो भी है चाहे वह जीव हो या जगत सब मिथ्या है।
      दूसरी ओर विशिष्टाद्वैत के संस्थापक रामानुजाचार्य है। रामानुज के अनुसार ब्रह्म के अलावा आत्मा (चित) एवम जगत (अचित) इनकी भी सत्ता है। परंतु ये ब्रह्म के अंश या अंग का विशेषण है। अतः ये भी वास्तविक है। वे भी ब्रह्म के समान सत् और सनातन सत् है परंतु ये ब्रह्म के समतुल्य नहीं है। इसलिए एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति का अर्थ जहाँ आचार्य शंकर यह कहते है कि एक मात्र ब्रह्म ही सत्य है वही रामानुज कहते है कि ब्रह्म के अलावा चित एवम अचित भी सत्य है लेकिन ब्रह्म के समतुल्य नहीं है। इस प्रकार जहाँ आचार्य शंकर के दर्शन में भेद मिथ्या है वही रामानुज के दर्शन में ब्रह्म भेदो से विशिष्ट अभेद है। अर्थात भेदो में अन्तर्निहित अभेद। इसी भेद विशिष्ट अभेद को विशिष्टाद्वैत कहते हैं।

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