Wednesday, 14 December 2016

रामानुज का ईश्वर

रामानुज आचार्य शंकर के अद्वैत वेदांत से पृथक भेद रहित अभेद तथा अभेद रहित भेद इन दोनों का खंडन करते हुवे पश्चात दार्शनिक हेगेल की भांति भेद विशिष्ट अभेद का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं जिसे विशिष्ट अद्वैत कहते है। रामानुज तत्व त्रय को मानते है जिसके अनुसार तीन तरह की सत्ताएं है। ईश्वर, चित और अचित। चित का अर्थ है चेतना, भोक्ता, जीव जबकि अचित का अर्थ है जड़, भोग, प्रकृति। रामानुज के अनुसार चित और अचित भी ईश्वर के समान सत् एवम सनातन सत्ताएं है लेकिन दोनों में अंतर यह है कि चित एवम अचित अंग है जबकि ईश्वर अंगी है। चित एवम अचित विशेषण है जबकि ईश्वर विशेष्य है। चित एवम अचित गुण है जबकि ईश्वर द्रव्य है। इस प्रकार चित एवम अचित ईश्वर से परे नहीं है बल्कि उन्ही पर आश्रित है। ईश्वर चित एवम अचित की अंतर्यामी आत्मा है। इस भेद विशिष्ट अभेद को रामानुज विशिष्ताद्वैत कहते हैं।
             अपनी इसी मान्यता के आधार पर रामानुज उपनिषादिक वाक्य एकोब्रह्म द्वितीयोनास्ति की आचार्य शंकर से पृथक व्याख्या करते हैं। आचार्य के अनुसार इसका अर्थ यह है कि एक मात्र ब्रह्म की सत्ता है। ब्रह्म के अलावा जो कुछ भी है मिथ्या है। लेकिन रामानुज के अनुसार इसका अर्थ नहीं है कि एक मात्र ब्रह्म की सत्ता है। ब्रह्म के अलावा चित एवम अचित की भी सत्ता है। वे भी ब्रह्म के समान ही सत् एवम सनातन सत्ताएं है परंतु ये ब्रह्म के समतुल्य नहीं है। 
             ऐसी ही सगुण, साकार, सविशेष ईश्वर को रामानुज ब्रह्म कहते हैं। उनका ब्रह्म इस सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादांन कारण है। अर्थात ब्रह्म ही जगत का निमित्त कारण है एवम उपादान कारण भी। रामानुज के अनुसार सृष्टि केवल अभिव्यक्ति है। ब्रह्म ही कारण है और ब्रह्म ही कार्य भी। पहली कारणावस्था है और दूसरी कार्यवस्था है, क्योंकि ब्रह्म कारण एवम कार्य दोनों ही है इसलिए रामनुज उसे अभिन्ननिमित्तोपादान कारण कहते है। लेकिन उनके अनुसार सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं है। वह केवल लीला मात्र है।
               सृष्टि करने के लिए व्यक्तित्व का होना आवश्यक है। अतः रामानुज मानते है लेकिन ईश्वर का व्यक्तित्व हम लोगो की तरह प्राकृतिक तत्व से निर्मित नहीं है बल्कि उसका व्यक्तित्व शुद्ध सत्व एवम अप्राकृतिक तत्व से निर्मित है। अतः व्यक्तिव पूर्ण होते हुवे भी ईश्वर बंधनयुक्त नहीं होता। इस तरह भी व्यक्तित्व बंधन का कारण नहीं है। बंधन का कारण तो कर्म है,अज्ञान है। ईश्वर व्यक्तित्व पूर्ण होते हुए भी अज्ञान रहित है। अतः ईश्वर बंधन मुक्त है।
            ऐसी ही सगुण, साकार ईश्वर को रामानुज भगवान कहते हैं। भगवान का अर्थ है भग का स्वामी। विष्णु पुराण के अनुसार भाग के अंतर्गत छः विशिष्टताएं आती है। ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान एवम वैराग्य। ईश्वर इन छः गुणों का एक छत्र स्वामी है। यही नहीं इन छः गुणों के अलावा ईश्वर में दो अन्य गुण भी पाए जाते है। सत्य संकल्प एवम अपह्तपापमत्व। सत्य संकल्प का अर्थ है की ईश्वर अपने सभी संकल्पो को पूरा करता है तथा अपह्तपापमत्व का अर्थ है कि वह सब कुछ करते हुवे भी सभी प्रकार के पापो से रहित है। इस प्रकार ईश्वर में ये आठो गुण पाए जाते है। इन्ही आठो गुणों के कारण रामानुज अपने ईश्वर को गुणात्मक कहते हैं।
              इन आठ स्वरुप गुणों के अलावा ईश्वर में कुछ अन्य गुण भी पाए जाते है जैसे वह अति सुंदर, अपार करुणा एवम अगाध वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है। कोई भी भक्त ईश्वर की शरण में शीघ्रातपूर्वक जा सकता है। अपने शरण में आये हुवे भक्तो के रक्षार्थ ईश्वर कृत संकल्प है।
              लेकिन भक्तो पर कृपा करने के लिए तथा दुष्टो का सर्वनाश करने के लिए ईश्वर पांच रूप धारण करता है। जिसे अंतर्यामी, पर, व्यूह, विभव एवम अर्यावतार कहते है। अंतर्यामी का अर्थ यह है कि ईश्वर भक्तो के ह्रदय में प्रवेश करके उनकी सकल प्रवृतियों का नियंत्रण करता है। पर रूप वसुदेव का रूप है इसी रूप में ईश्वर बैकुंठ लोक में निवास करता है। व्यूह के अंतर्गत वह चार प्रकार के वियोगो की रचना करता है। वासुदेव संकर्षण, प्रधुम्न, अनिरुद्ध। वासुदेव का अर्थ है आत्म तत्त्व का नियन्ता। संकर्षण बुद्धि तत्व का नियन्ता। अनिरुद्ध अहंकार तत्व का नियन्ता जबकि प्रधाम्न मन का नियन्ता। भक्तो के रक्षार्थ तथा दुष्टो का संहार करने के लिए ईश्वर अवतार ग्रहण करता है जिसे विभव कहते है। यह अवतार दो प्रकार का होता है मुख्य अवतार और गौण अवतार। मुख्य अवतार वह है जिसमे भगवान विष्णु स्वयं जन्म ग्रहण करते है जबकि गौण अवतार वह है जिसमे मुक्त आत्माये जन्म ग्रहण करती हैं। अर्यावतार का अर्थ यह है कि भगवान विष्णु मंदिर की पवित्र मूर्तियों में निवास करते हैं।
        लक्ष्मी उनकी पत्नी है तथा अनंतकाल से उनके वैभव की साक्षी भी। कोई भी भक्त भगवान विष्णु की कृपा लक्ष्मी के माध्यम से शीघ्रतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। लक्ष्मी के दो रूप है क्रिया एवम मूर्ति। क्रिया के अंतर्गत वे जगत का नियमन एवम नियंत्रण करती है जबकि मूर्ति के अंतर्गत वे जगत का पालन करती हैं।
            इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि रामानुज का ईश्वर आचार्य शंकर के ब्रह्म से कई अर्थो में भिन्न है।
1- आचार्य शंकर का ब्रह्म निर्गुण, निराकार,निर्विशेष है जबकि रामानुज का ईश्वर सगुण, साकार और सविशेष है।
2- आचार्य शंकर का ब्रह्म विशुद्ध चैतन्य है जबकि रामानुज का ईश्वर आत्म चैतन्य है।
3- आचार्य शंकर के ब्रह्म में सजातीय, विजातीय एवम स्वगत किसी प्रकार का भेद नहीं है जबकि रामानुज स्वगत भेद को मानते हैं।
4- आचार्य अपने ब्रह्म को निर्व्यक्तिक कहते है जबकि रामानुज अपने ईश्वर को व्यक्तित्व पूर्ण कहते हैं।
            इसलिये रामानुज के ईश्वर की तुलना पाश्यात्य दार्शनिक हेगेल के निरपेक्ष से किया जाता है। क्योंकि हेगेल भी निरपेक्ष को व्यक्तित्वपूर्ण मानता है। जहाँ रामानुज अपने ईश्वर को भक्ति और आराधना का विषय मानते है वही हेगेल उसे बौद्धिकता का विषय कहता है। उसके अनुसार सत बौद्धिक है एवम बौद्धिक सत् है। इसलिए रामानुज के ईश्वर की सार्थक तुलना जेम्स वार्ड तथा ब्रिंगल पैटिंसन के ईश्वर से किया जाता है।
        

No comments:

Post a Comment